Monday, 25 May 2009

आशिक़

सब्र आशिक़ से ना माँगो के उसे सब्र कहाँ,
तलब मैं खुद ही वो बे सुध है उसे होश कहाँ.

बेशुमार आँसू हैं उसकी महफ़िल मैं,
बनाया कक्कासा ग़मों को, ग़ज़ल उसकी सिसकी है.

ना माँगो खुशियाँ तो बेहतर है उससे लोगों सुनो,
दामन आँसू भरा होगा तो दिल दर्दो भरा.

दर्द-ए- हस्ती है और खून-ए जिगर आँखों मैं,
शमा से बैर है और रातों से दोस्ताना है.

ना माँगो रोशिनी आशिक़ से तो ही बेहतर है,
जला भी सकती है दिलजले के दिल से निकली है.

जला के ख्वाब वो देखता है तमाशा अपना,
वो ही ख्वाब कभी लकते-ए- जिगर होते थे.

चला था जान कर फूलों भरी होंगी राहें,
छिपे काँटों ने किया घायल अधूरी राहों मैं.

ना पूछो राह इस घायल से तो ही बेहतर है,
जिसकी राहें छीनी, मंज़िल गुमी और खुद की खुदी.

कर सको गर तो बस इतना बा-खुदा तुम करना,
गिने कुछ चंद आशिकों मैं इसे शुमार रखना.

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