Wednesday 15 July 2009

Chadar

वो जो दिखता था अजनबी सा मुझे,
मेरी ही ज़िंदगी का फलसफा निकला!
ना निकला जो कभी भी कहीं मेरे दिल से,
भरी महफ़िल मैं जाके खुद को रो बैठा.
ना जाने कैसे, किस तरह वो ऐसे गुज़रा,
मेरी पलकों के तले,अदना सा आँसू उभरा,
छिपाए फिरते थे जिस गम को इस ज़माने से,
वही गम आज सब के रूबरू .आ निकला
बहुत की ,कोशिशें एस गुम को दफ़न करने की,
जब भी रोका उसे वो कम्बख़त बेपनाह मिला.
ज़माने भर से जिसको छुपाए रखा था!
ज़ख़्म दिल का वही फिर आज बेवफा निकला.
छुपाई जिस मैं आबरू अब तलक घर की,
मेरी इज़्ज़त को मेरी चादर ने ही नीलाम रक्खा.

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