Thursday 4 June 2009

गूँजे थिरकन फिर जीवन की.

हैं पंख नये, विशाल गगन
है सोच नई और लफ्ज़ नये,
फेले आकाश के तले कहीं,
गूँजे थिरकन फिर जीवन की.

गहरी साँसे, गहरी है सोच,
गहरा चिंतन और खुला चमन,
आ पहुँची एसी नगरी मैं,
नामुमकिन जैसा कुछ भी नहीं.

मेरे पंख पकड़ते तेज़ी से,
हर हवा के रुख़ को चूमते से,
सब बादल जीतने काले थे,
उन्हे चीरते अपने पंखों से,
मैं चली अडिग सी चाल लिए,
एक नयी दिशा की ओर कहीं.

मेरे पंखों मैं वो दम खम है,
जो हवा के रुख़ को बदल उड़े,
हर मोड़ पे फूर से मूड जाए,
न बीहड़ जाने मेरे नयन.
न हार को जाने मेरा मन.

मैं आगे चली दुनियाँ पीछे,
ताबीर है सपनो से आगे,
कोमल मन का कोमल सपना,
मेरी दुनिया ही मेरा सपना,

मैं ही मालिक, मुलाज़िम भी,
अंजाम हूँ मैं, आगाज़ मैं ही,
मैं अंतर मैं निरन्तर हूँ
मैं भीतर भी, उजागर भी.

ये आधा भी है मुक्कमल भी
मेरा जीवन संग मेरी धूरी,
मेरी साँसे थोड़ी अधूरी सी,
दुनियाँ दिखती फिर भी पूरी,
ये एसी भी है वैसी भी.
ये है बिल्कुल मेरे जैसी

फैले आकाश के तले कहीं,
गूँजे थिरकन फिर जीवन की.

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