Thursday 28 May 2009

तो कोई क्या करिए

देखे दिलबर भी अजनबी की तरह, तो कोई क्या करिए,
भीड़ क़यामत की हो गर साथ तो कोई क्या करिए.
उन्हे मैंभीड़ मैं नज़र नहीं आती,
सूरत-ए-आशिक़ मुझे हर्सू नज़र आए तो कोई क्या करिए.

के - ढूंडे से नहीं मिलती मुझे मेरी सूरत,
ज़माना-ए-जफाई किस क़दर फेला हे अब,
अक्स अपना भी बेवफा गर जो निकले, कौनसी शे है जिसे कोई फिर अपना समझे.
निकाल भी दूँ मैं कलेजा चीर के अपना, वो ठोकर मार के चल्दे, तो कोई क्या करिए.

साथ जब राह गुज़र बीच मैं ही छोड़ दे तो कोई बात नहीं,
मंज़िल पे गर वो खींच ले दामन यूँ ही तो कोई क्या करिए,
लड़के समंदर से जीती थी बाज़ी जान की हमने,
गर संग-ए-साहिल ही डूबो दे तो कोई क्या करिए.

क्या होती है मिसाल-ए-मोहब्बत क्या ख़बर,
मेरी बर्बादी को अक्सर लोग मोहब्बत कहते है.
दिल लगाया भी, जीता भी और बहुत खूश भी हुए,
दिल के जज़्बात कोई लूट ले तो कोई क्या करिए.

चाँदनी रात मैं जब चाँद नदारद हो गर,
चाँदनी को ही ज़ालिम ज़माना कहे तो कोई क्या करिए.
इल्ज़ाम बहुत बूँदों पे बरसाते है लोग अक्सर,
मेघ गर रुख़ ना करे मेरे घर का तो कोई क्या करिए.

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